Friday, May 7, 2010

अमन आशा, बस एक तमाशा

देखो ज़रा देहर अब बस एक राख-ए-गुलिस्तान है,
बारूद में मौत को बोता यहाँ हर इंसान है।
करते है बातें अमन-औ-आशा की,
हर बीज से पैदा जब होता यहाँ शैतान है।

खून वही जिससे रंगता दोनों का जहान है,
एक ही दुश्मन पर हुए लाखों कुर्बान हैं।
करते हैं बातें अमन-औ-आशा की,
रोज़ निकलते जहाँ मुर्दों के कारवान हैं।

वादी में उठता बरसों से लहू का उफान है,
सियासत की शमशीर की जैसे बन गयी एक मयान है।
करते हैं बातें अमन-औ-आशा की,
गुलिस्तान सा बन कर जहाँ रहता शमशान है।

Monday, April 26, 2010

खुदापरस्ती

बेगाने हो गए हम खुद से उल्फत में तेरी,
ले लिया मेरा दिल, मेरी सांस, सारी कायनात मेरी।
होश भी न रहा खुदापरस्ती में हमें,
बुतों से बन बन गए हम खुदानावाज़ी में तेरी।
पर है नहीं अफ़सोस हमें इस सरफरोशी का,
आखिर है कौन रहनुमा और इस ज़िन्दगी में मेरी?
दिखा दिया तुमने हमें मुल्क-ए-अदम का रास्ता,
ले लो तुम सारी वफ़ा मेरी, रूह मेरी, जान मेरी।

खुदाई

क्या लिखें खिदमत में तुम्हारी आज बात वज़न कि हुई नहीं,
सोचते हैं फासलों में खुदाई कैसे हुई नहीं।

तो सोच लो फिर दिन वो पहला हुए रूबरू हम जब पहली दफा,
खूबसूरती सहमी हुई सी, आँखों में हमारे था नशा।

आज भी याद है वो पहली मुस्कान हमें,
थे नशे में चूर लेकिन महक है वो याद हमें।

मुक़द्दर के खेल को देखो तो कुछ ज़रा,
बिन पिए ही सर हमारे झूमता है ये नशा।

मर जाने दो इस नशे में जी कर भी हम क्या करें,
बिन तुम्हारे इस देहर में रह के भी हम क्या रहें?

कि सोचना पड़े जो इतना लिखने को नज़्म तेरे लिए,
कट जाये ये उंगलियाँ जो ना लिख पाएं तेरे लिए।

है खुदाई ये जो मेरी इसे कबूल कर मेरे खुदा,
टूट कर बिखर पड़ेगी तेरे लिए मेरी खमा।

Friday, April 23, 2010

रिश्ते

क्या बादलों ने ज़मीन से रिश्ता तोड़ा है?
प्यास से तड़प जाने के लिए कभी छोड़ा है?
चाहे हो फासले हज़ारों इन दोनों के बीच,
पर क्या किनारों पे ज़मीन के उसका हाथ छोड़ा है?

क्या गुल बिन खिले ही मुरझा जाते हैं?
क्या भंवरों के बिन ही उनके दिन गुज़र जाते हैं?
अरे उन बांस के नख्लों का जस्बा देखो,
बरसों जो एक गुल के लिए जी जाते हैं।

क्या रात बिन सितारों के रह पाएगी?
क्या सेहर बिन मेहर हो पाएगी?
तुम पूछती हो इस रौशनी का राज़,
क्या शमा वोह तुम्हे कभी दिख पाएगी?

लगा लिया है जब दिल तुमसे,
फिर तोह चाहे जान चली जायेगी।
हम होने ना देंगे वो सेहर जब,
बिन देखे नज़्म हमारी तुम रह जाओगी।

और फिर पूछती हो कैसे ये शमा जल पाएगी,
वक़्त और फासलों में कैसे बुझ ना पाएगी।
रख लो ज़हन में वो बादल, ज़मीन, गुल, नख्ल, मेहर, सेहर, रात और सितारे,
फिर देखना वो शमा तुम्हे खुद में ही मिल जायेगी।

Thursday, April 22, 2010

कहते हो?

कहते हैं आप कि करें ना बात अगर लगते हैं आप हमे खफा,
कैसे निगलेंगे अल्फाज़ कैसे करेंगे खुद पे ये जफा।
कहते हो कि खुश हो तुम ग़लतफहमी है हमें,
ज़रा बताओ क्या दिखते नहीं हैं झुलसते फूल हमें?
कहते हो ना मोहब्बत करो इतनी कि कर पाओ ना कभी और,
हम चाहते ही नहीं मेरे आशना कि ज़िन्दगी में हो तुम्हारे सिवा कोई और।

तो करेंगे हम गुफ्तगू चाहे बचे ना गले में अल्फाज़,
इशारों में भी तोह दिल का हाल सुनाया जायेगा।
हम चाहते हैं आप रहो खुशनुमा,
वरना चैन भी ना हमें कभी आयेगा।
तुम चाहे चले जाओ दूर छोड़ कर हमें हिज्र में,
हर पल पलट कर दिल ये दिल तुमसे ही लगाएगा।

इज़हार

सोचते हैं किस किस तरह से इज़हार-ए-इश्क करेंगे फ़िराक में,
क्या तरीके और भी हैं दिलनवाज़ी के आशिकी की दयार में?
लफ़्ज़ों में अपना जी घोल दिया, आवाज़ में दिल पिरो दिया,
क्या दिया है खुदा ने वो हुनर इस दिल की चार दीवार में?

पर करिश्मा तोह देखो आपसे जुदाई का,
तन्हाई में भी रवां रहता है सैलाब आशनाई का।
हो ऐसे नाखुदा आप कश्ती के हमारे,
डुबाते हो प्यार में रोज़ लेकिन एहसास है मंजिल से मिल जाने का।

तो नूर मेरे देख लो आज एक और लफ़्ज़ों की बारात,
हम ढूंढते रहेंगे रास्ते इज़हार-ए-इश्क की मंजिलों के।
आप कहें भी अगर की आप नहीं काबिल-ए-वफ़ा हमारी,
हम होते रहेंगे फना रोज़ शमा-ए-दिल में आपकी परवानो जैसे।

Tuesday, April 20, 2010

पूछो

पूछो गुलों से कि याद हमें आपकी किस कदर आती है,
कि गुल ही शर्मा जाते हैं हम देखते हैं जब उन्हें,
हर गुल में जो शबीह आपकी नज़र आती है।

पूछो हवा से कि क्यों बहती नहीं इस तरफ,
खुशबू जो हमें आपकी तडपाती है।
कैसे बनेगी उस लायक ये हवा,
सो मुह फेर कहीं और चली जाती है।

पूछो रात ये सितारों से क्यों टिमटिमाती है,
घनी काली अँधेरी क्यों नहीं हो जाती है?
जुल्फें जो हैं आपकी हमारे ख्वाबों में,
ये रात दिन बन कर हमे जगाना चाहती है।

फिर पूछो कि क्यों है हमें आपसे ये बेशुमार मोहब्बत,
कि हर रात ख़मा हमारी प्यार क्यों बरसाती है?
ज़हीर हैं आप हमारे हर ज़र्रे में है आपका नाम,
हर नुख्ते में तस्वीर आपके तिल कि जो नज़र आती है!

Wednesday, February 17, 2010

१४ फेब्रुअरी..


आज के दिन लोग अपने प्यार का इज़हार गुलाबों से करते हैं, हमने सोचा क्यों न इस पर एक बात कह दी जाये इन दीवानों से,

वो गुलाबों में अपना दिल संजो के देते हैं,
हम सोचते हैं कि खुदा को बुतों के तोहफे क्यों देते हैं?
कैसी ये मोहब्बत जो कुछ फूलों में सिमट जाए,
हम तोह फूलों कि तस्वीर उनकी आँखों में देखते हैं।

जीना नहीं चाहता

हो जाएगी सहर जब आँखें पड़ेंगी इस पर,
पर वो सहर तेरे बिना मैं जीना नहीं चाहता।

सुन लूँगा साज़ जब रह जाएगी सिर्फ एक याद,
पर तुम्हारी आवाज़ के बिना मै जीना नहीं चाहता।

जाऊंगा जब मैं कहीं साथ होगा कोई और,
पर तेरे दीदार के बिना मैं जीना नहीं चाहता।

दिल में इतनी यादें और बेशुमार ये ग़म,
पर तेरी यादों कि ख़ुशी के बिना मैं जीना नहीं चाहता।

जीना नहीं चाहता फ़िराक की तारीकी में,
इस तारीकी में शमा मैं जला नहीं पाता।

और कैसा ये मंज़र तुम्हारे जाने से पहले,
कि इस शमा को जलाये बिना मैं मरना भी नहीं चाहता।

Monday, February 1, 2010

ज़फ़ा


क़ाबिल-ए-ज़फ़ा तो हम आपके कभी ना थे,
बेवफ़ा ये दिल था हमे जो दग़ा दे गया।

लोक सभा चुनाव के पहले..











डूब
गया है हर कोई इस शोर के समंदर में,
कैसे सुने कोई हकीकत की आवाज़ इस बवंडर में।
अनदेखी ताकतें खींची चली जाती हैं ज़हन को इस भंवर में,
तकदीर बेघर हो रही है खुद अपने ही घर में।

अँधा धुंध चलते जाओ कोई रास्ता तो निकल ही आयेगा,
पर गुलामी के कफ़न से क्या सय्याद तुम्हे बचाएगा?
फिर भी चलते जाओ, अंधे को कोई रास्ता तो दिखायेगा,
पर ये भी तो समझो की अंधे को अँधा क्या दिखलायेगा?

बैठ गयी है तान के एक धुन लेकिन हर मन में,
उस धुन को गाने और तुम्हे नचवाने कोई नेता ही आयेगा।
आजाद हो गए मगर आज़ादी नहीं देखी,
इस शब्द का अर्थ तो शायद तुम्हे भगवान ही बताएगा।

तो चलो मेरे साथियों वोट देते हैं,
अंधों के देश में राह आखिर कोई अँधा ही दिखायेगा।
और क्या फर्क पड़ेगा जो कोई भी जीते,
अंधों के देश को आखिर एक अँधा ही चलाएगा।

बारिश का जादू


बरस रहे हैं कतरे आसमां के मयखानों से,
नशा सा चढ़ रहा है ख़ाक से उठती हवाओं से।
पिला दे तू साक़िया अब रहा नहीं जाता,
ये आशिक फिर रहे हैं लिए दिल अपने पैमानों में।

अश्क


बरसता था ज़मीन पे अश्क तो धुआं सा उठता था,
आग तो शायद इस दिल में ही लगी थी।
आज पड़े हैं राख में ज़मीन की ही कोख में,
सोचते हैं आग जाने कहाँ लगी थी।

पिता से..

रास्तों की ज़हमतों का उनको कैसे दें सबूत,
कि पाँव के छाले भी मेरे मील के पत्थर हुए।