क्या लिखें खिदमत में तुम्हारी आज बात वज़न कि हुई नहीं,
सोचते हैं फासलों में खुदाई कैसे हुई नहीं।
तो सोच लो फिर दिन वो पहला हुए रूबरू हम जब पहली दफा,
खूबसूरती सहमी हुई सी, आँखों में हमारे था नशा।
आज भी याद है वो पहली मुस्कान हमें,
थे नशे में चूर लेकिन महक है वो याद हमें।
मुक़द्दर के खेल को देखो तो कुछ ज़रा,
बिन पिए ही सर हमारे झूमता है ये नशा।
मर जाने दो इस नशे में जी कर भी हम क्या करें,
बिन तुम्हारे इस देहर में रह के भी हम क्या रहें?
कि सोचना पड़े जो इतना लिखने को नज़्म तेरे लिए,
कट जाये ये उंगलियाँ जो ना लिख पाएं तेरे लिए।
है खुदाई ये जो मेरी इसे कबूल कर मेरे खुदा,
टूट कर बिखर पड़ेगी तेरे लिए मेरी खमा।
Monday, April 26, 2010
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