देखो ज़रा देहर अब बस एक राख-ए-गुलिस्तान है,
बारूद में मौत को बोता यहाँ हर इंसान है।
करते है बातें अमन-औ-आशा की,
हर बीज से पैदा जब होता यहाँ शैतान है।
खून वही जिससे रंगता दोनों का जहान है,
एक ही दुश्मन पर हुए लाखों कुर्बान हैं।
करते हैं बातें अमन-औ-आशा की,
रोज़ निकलते जहाँ मुर्दों के कारवान हैं।
वादी में उठता बरसों से लहू का उफान है,
सियासत की शमशीर की जैसे बन गयी एक मयान है।
करते हैं बातें अमन-औ-आशा की,
गुलिस्तान सा बन कर जहाँ रहता शमशान है।
Friday, May 7, 2010
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